आज हम 21वीं सदी की हवा में जी रहे हैं । जहाँ की आधुनिकतावाद ने हमें एक ओर जहां विकास के निकटतम सोपान के करीब तक लाने में अहम भूमिका निभाया है ; वहीं हमारी सोच और संस्कृति पर हावी होता वेस्टर्न-कल्चर, जिसे माॅडर्न युवा उसे विकसित परिपाटी समझकर तवज्जो दे रहे हैं, आज उसी परिपेक्ष्य में एक अलग-थलग सा दिख रहे हमारे समाज को, नैतिक अंकेक्षण से आच्छादित कर एक आदर्शवाद के पैमाने से सशक्त करने की जरूरत महसूस होने लगी है ।
बात, उस समय के आकलन से नहीं, जिस समय के हमारे पूर्वजों और बाद के गुजरे परिजनों के बीच हम खुद को अपने स्वजनों के सहयोग से आच्छादित समझते थे । …बात तो, अब इस समय के मौजूदा सेल्फिशनेस में सहयोग की छांव ढूंढ रहे, परिस्थिति से समझौता कर रहे और सिंगल फैमिली में सिमटे हमारे माॅडर्न युवा पीढ़ी के निराशावादी होने की दिख रही विवशता की है ; जिस कारण उनकी मानसिक क्षमता में हो रहे ह्रास से प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव हावी होता भी दिख रहा है ।
आज इस सम्पादकीय में वर्तमान दौर पर मंथन करना इतना जरूरी-सा हो गया है, कि जिसे समय रहते अगर स्वस्थ और शुद्ध नहीं रखा गया , तो आनेवाले दिनों में मौजूदा आवोहवा का दुष्परिणाम अहितकर साबित होगा ।अतः हमारे समाज, जिससे हमारे और हमारी पीढ़ी के चतुर्दिक विकास की संभावना छिपी है, उसे पुनरीक्षित और संशोधित करने की जरूरत है । ताकि हमारे वर्तमान युवा पीढ़ी, जिन्हें शायद नए भारत की तालाश है, उनके नेक हौसलों, शुद्ध विचारों और उनमें परस्पर सहयोग की मानसिकता को उन्नत करना अनिवार्य है । तभी हम स्वाभिमान के साथ नि:संकोच खुद आत्मनिर्भर होकर एक स्वस्थ समाज की स्थापना कर सकेंगे ।